Monday, January 5, 2009

स्थगित अस्तित्व: एक याचना

तुम आओ!

पास बैठो मेरे !

मुस्कुराओ,
और सपने देखो !

शिशिर की इस
स्नेह -उष्ण नयी पीली धूप में
सर्जना की अविरल साधना निमग्न
किसी अनाम पुष्प वृन्त पर
मधुरिम कल्पना के स्नेह- सुमन सा खिल जाओ !

पवित्रतम क्‍वारी निशा- किशोरी के
श्याम नील मौन-आंचल में आवृत
संघनित अंधेरों के ढ़ूह नुमा
दर्दीले पेड़ों की व्यथा कथा बन
किसी कवि -हृद में पग जाओ!!

अभिसार ऋतु में ,उल्लास पर्व पर
चातक- विरह व्याकुल विरहिणी (के) मन में
मिलन -आस-दीप प्रसूत हर्ष-प्रकाश- रश्मि बन
अखिल विश्व आलोड़ित कर जाओ !

या चाहे जो हो जाओ !
किन्तु
छुओ मत मुझे !

स्नेह लो और दो !
किन्तु
मुझमें अपना अस्तित्व न मिलाओ !

अपने आह्लाद की कथाएं कहो !
किन्तु
मेरा संपृक्त मरुस्थल न बिगाड़ो . . . . . .

3 comments:

  1. इतनी कठिन दिखने वाली कविता तुम्हारी है, बधाई हो, हिन्दी ज्ञाता!

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  2. @बधाई हो, हिन्दी ज्ञाता!

    लेकिन भाव सुगम शब्द मांगते है....... आमजन के लिए...

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  3. प्रिय अभिषेक,

    अहा ! अप्रतिम ! अति मुग्धकारी !

    स्नेह लो और दो !
    किन्तु
    मुझमें अपना अस्तित्व न मिलाओ !

    अपने आह्लाद की कथाएं कहो !
    किन्तु
    मेरा संपृक्त मरुस्थल न बिगाड़ो . . . . . .
    कविता पढ़ते समय इस तरह के उपसंहार का अनुमान नहीं था. हालाँकि यह आपकी विशिष्टता है. जो कविता को नवीनता देती है. वे पल तो अनछुए नहीं हैं जिनमे यह कविता जन्मी है. किन्तु कथ्य बिल्कुल ही अनछुआ है.
    आपकी शैली और शब्द विन्यास सदैव बहुत ही मोहक लगता है.
    मेरा "संपृक्त मरुस्थल" न बिगाड़ो . . . . . . 'संपृक्त मरुस्थल" कितना सटीक प्रयोग है!

    हालाँकि कविता मन में कुछ प्रश्न भी जगाती है-
    "स्नेह -उष्ण नयी पीली धूप में
    सर्जना की अविरल साधना निमग्न"

    "दर्दीले पेड़ों की व्यथा कथा बन
    किसी कवि -हृद में पग जाओ!!"

    "चातक- विरह व्याकुल विरहिणी (के) मन में
    मिलन -आस-दीप प्रसूत हर्ष-प्रकाश- रश्मि बन"

    क्या अस्तित्व के मिले बिना इन अनुभूतियों के चित्र उतने ही रंगमय रह सकेंगे जितनी उनकी कल्पनाओं के चित्र हैं?
    क्या इन दृश्यों से मरुस्थल की संपृक्तता अखंडित रह सकेगी?

    बहरहाल, कविता बहुत ही सुन्दर है. कभी कुछ विशेष पलों में जन्मे यहसास विद्युत् से स्मृति के आकाश पर चमक उठे.

    बहुत बहुत शुभकामनाएँ !

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