Saturday, January 19, 2013

आज की सुबह !


छलकती है

पहाड़ॊं के पीछे

पिघली चांदी की नदी

 छोटी छॊटी पंक्तियों में

लगी सफेद बादल की मेड़ॊं पर

पड़ रही छीटें !

 

आसमान की क्यारियां

हो रही भोर के उल्लास में

नीली पीली !

 


इस तरफ की

गहरी धुन्ध भरी घाटी में

बाकी है

बिखरी रात की स्याही

आकर जिसे अभी लीप देगी

जलती चांदी की नदी में तैरती

सूरज के चमकदार हीरे की डोंगी ! 





 

 

2 comments:

  1. इस तरफ की

    गहरी धुन्ध भरी घाटी में

    बाकी है

    बिखरी रात की स्याही

    आकर जिसे अभी लीप देगी

    जलती चांदी की नदी में तैरती

    सूरज के चमकदार हीरे की डोंगी !

    भाई, कहने को तो दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे, पर है अभिषेक का अंदाजे-बयाँ और। बहुत सुखद लगता है आपको पढना। लेकिन सुखदतम तब होगा जब आपको सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत संस्थाओं द्वारा स्वीकार किया जाएगा। हमारी व्यवस्था इतनी ढीली है कि पता नहीं तब तक मैं जीवित रहूंगा या नहीं। लेकिन एक दिन यह होगा यह तो तय है।
    अशेष शुभकामनाओं के साथ ......

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  2. प्रकृति -मनुष्य का सुन्दर तादात्म्य

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