Sunday, December 21, 2014

एक सपना



कल रात भोर में एक सपना आया मुझे. मैंने देखा कि मैं एक ऐसे जंगल में खॊ गया हूं जहां सिर्फ बड़े बड़े विद्वान, बुध्दिवीर रहते हैं। अलग अलग विषयों , क्षेत्रों के विद्वान। उन्होंने सारी जिन्दगी केवल अपने विषय को सिध्द करने में बिता दी.  लेकिन मैं तब घबरा गया और मेरी सांसें अचानक बढ गयीं जब मैंने पाया कि सभी विद्वानों की पूरी देह मेढक के आकार की है. सबने अपने अपने गढ्ढे खोद रखे हैं ।दिन भर अपने विद्यार्थियों , कम जानने वालों का दिमाग कीड़े मकोड़ॊ की तरह खाते हुये खाली समय में दो चार किताबें गार देते हैं तो उनसे थोड़ा सा पानी निकल आता है. उसी में वो आराम से टर्र टर्र करते रहते हैं । एक दूसरे से ऊंची टर्राहट की होड़ मची रहती है। और इस बात की भी होड़ रहती है कि मेरा पानी ही सबसे श्रेष्ठ है और सबसे ज्यादा है। दुनिया में और पानी होता ही नहीं.
थोड़ी देर बाद मैंने महसूस किया कि मेरे गले से भी अपने आप ही कोई आवाज निकल रही है. शुरुआत में वह गुर्राहट जैसी थी लेकिन धीरे धीरे आसपास की आवाजों जैसी होती जा रही है.मेरा दम घुटने लगा. मुझे लगा कि अब मुझे वहां से भाग जाना चाहिये. मैंने पीछे लौटने की कोशिश की लेकिन मेरी देह हिली ही नहीं । उसका आकार धीरे धीरे मेढ़क जैसा हो रहा था. शायद इन कर्कश आवाजों का जहरीला असर होने लगा था.
अन्ततः मैं जोर से चींख उठा. उठ बैठा. लेकिन आश्चर्य कि सपना टूटा ही नहीं. मेरी आवाज और मेरा आकार तो ठीक हो गया लेकिन मेरा सपना मुझसे अलग हो मेरे सामने खड़ा हो.









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